अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा - "हे! श्रीकृष्ण, आपने ज्ञान - योगियों की तरह कर्म त्यागने को कहा था। अब आप मुझे कर्म करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। आपने निष्काम कर्म - योगीयों की तरह बिना फलासक्ति के कर्म करने को उचित माना। अब आप ही मुझे बताइए कि इन दोनों में से कौनसा श्रेष्ठ है? मेरे लिए जो कल्याणकारी है, उसके बारे में मुझे बताइए"।
तब श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा-" चाहे कर्म को त्याग दें या कर्म फल को त्याग दें, मोक्ष तो अवश्य मिलेगा। कर्म के त्यागने से भी निष्काम-कर्म करना ही सरल और श्रेष्ठ है।
जो व्यक्ति न तो किसी से घृणा (नफरत) करता है और न किसी की इच्छा रखता है, वही संन्यासी कहलाने योग्य है। ऐसा व्यक्ति राग - द्वेष को त्यागकर सुख पूर्वक सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है।
मूर्ख मनुष्य कर्म के त्यागने को और निष्काम कर्म - योग को अलग - अलग मानते हैं। इन दोनों में से किसी एक का पालन सुचारू रूप से करें तो भी मिलने वाले फल में कोई अंतर नहीं होता है।
कर्म को त्यागने वाले जिस फल को प्राप्त करते हैं ,वही फल कर्म - फल को त्यागने वाले भी प्राप्त करते हैं। जो ज्ञान योगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है ,वही निष्काम कर्म- योगियों को भी प्राप्त होता है। इस बात को भली-भांति समझने वाला ही 'बुद्धिमान' है"।
इस प्रकार श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा।
चाहे ज्ञान - योगी हो या कर्म-योगी बाहरी संसार को कैसे भी देखें, पर वे भीतर से और बाहर से अपने आप में अलग ही होते हैं। वे हमेशा एकात्म भाव से रहते हैं।
संन्यासियों की भांति भगवा रंग के कपड़े पहनने से कोई ज्ञानी नहीं बनेगा। अंतर्मन से अपने अवगुणों को छोड़कर सद्गुणों को अपनाना चाहिए।तभी वह ज्ञानी बनेगा।
हमारे दृष्टिकोण (देखने या सोचने-समझने का पहलू) में बदलाव होना चाहिए। सभी में परम तत्व ( सर्वोत्कृष्टता) को देखना चाहिए। ये सब बातें स्वयं के लिए ही स्वयं साधना द्वारा करें।
जिस प्रकार पत्थर से मूर्ति बनने से उसकी महानता बढ़ेगी, उसी तरह मनुष्य भी महान कर्म करने से उसकी महानता बढ़ेगी। आध्यात्मिकता द्वारा हमने जो ज्ञान प्राप्त किया है ,वही ज्ञान हमारे चारों ओर की आज्ञानता को मिटा देगा। ज्ञान- योग और निष्काम कर्म - योग को एक ही दृष्टिकोण से देखने वाला ही
'बुद्धिमान' है।
(भगवद् गीता 5-1 से 5-5 तक के श्लोकों के भावानुसार)
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